अरबिंदो घोष एक भारतीय दार्शनिक, योग गुरु, महर्षि, कवि और भारतीय राष्ट्रवादी थे। इसके सिवा वो एक पत्रकार भी थे जिन्होंने बंदे मातरम जैसे समाचार पत्रों का संपादन भी किया। उन्होंने 1910 तक ब्रिटिश राज से स्वतंत्रता के लिए भारतीय आंदोलन में एक प्रभावशाली नेता के रूप में कार्य किया। 1910 के बाद उन्होंने अपना ध्यान अध्यात्म की तरफ मोड़ लिया, और मानव प्रगति और आध्यात्मिक विकास पर अपने दृष्टिकोण को सामने रखा।
अरबिंदो घोष का जन्म 15 अगस्त, 1872 को हुगली जिले के कोननगर गाँव में हुआ था, जो भारत के पश्चिम बंगाल राज्य में स्तिथ है। अरविन्द के पिता का नाम कृष्ण धुन घोष (सर्जन) और माँ का नाम स्वर्णलता देवी (राजनारायण बोस की बेटी) था। अरबिंदो घोष के दो बड़े भाई-बहन थे, मनमोहन और बेनॉयभूषण , एक छोटी बहन, सरोजिनी और एक छोटा भाई, बरिंद्र कुमार था। अरविन्द की पत्नी का नाम मृणालिनी देवी था।
अरविन्द को 7 वर्ष की आयु में उनके पिता ने उन्हें पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेज दिया जहाँ उन्हें ड्रियूेट के संरक्षण में रखा गया। उनके पिता चाहते थे कि उनके बेटे भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) में प्रवेश करें इसलिए वो पूरे परिवार सहित 1879 में इंग्लैंड चले गए।
श्री औरोबिन्दो के कोट्स हिंदी में
जैसे सारा संसार बदल रहा है, उसी प्रकार, भारत को भी बदलना चाहिए.
जीवन जीवन है – चाहे एक बिल्ली का हो, या कुत्ता या आदमी का. एक बिल्ली या एक आदमी के बीच कोई अंतर नहीं है. अंतर का यह विचार मनुष्य के स्वयं के लाभ के लिए एक मानवीय अवधारणा है.
कोई भी देश या जाति अब विश्व से अलग नहीं रह सकती.
भारत भौतिक समृद्धि से हीन है, यद्दपि, उसके जर्जर शरीर में आध्यात्मिकता का तेज वास करता है.
यह देश यदि पश्चिम की शक्तियों को ग्रहण करे और अपनी शक्तिओं का भी विनाश नहीं होने दे तो उसके भीतर से जिस संस्कृति का उदय होगा वह अखिल विश्व के लिए कल्याणकारिणी होगी. वास्तव में वही संस्कृति विश्व की अगली संस्कृति बनेगी.
व्यक्तियों में सर्वथा नवीन चेतना का संचार करो, उनके अस्तित्व के समग्र रूप को बदलो, जिससे पृथ्वी पर नए जीवन का समारंभ हो सके
और लोग अपने देश को एक भौतिक चीज की तरह जानते हैं. जैसे- मैदान, जमीन, पहाड़, जंगल, नदी वगैरह. लेकिन मैं अपने देश को माँ की तरह जानता हूँ. मैं उसे अपनी भक्ति अर्पित करता हूँ. उसे अपनी पूजा अर्पण करता हूँ
युगों का भारत मृत नहीं हुआ है और न उसने अपना अंतिम सृजनात्मक शब्द उच्चारित ही किया है, वह जीवित है और उसे अभी भी स्वयं अपने लिए और मानव लोगों के लिए बहुत कुछ करना है और जिसे अब जागृत होना आवश्यक है.
पढो, लिखो, कर्म करो, आगे बढो, कष्ट सहन करो, एकमात्र मातृभूमि के लिए, माँ की सेवा के लिए.
एकता स्थापित करने वाले सच्चे बन्धु हैं.
गीता अभी तक जाति को दिए गए आध्यात्मिक कार्यों का सबसे बड़ी धर्म शिक्षा है।
भारत धर्मों का मिलन स्थल है और इन्हीं में से अकेले हिंदू धर्म अपने आप में एक विशाल और जटिल चीज है, इतना धर्म नहीं जितना कि एक महान विविध और फिर भी सूक्ष्म रूप से एकीकृत आध्यात्मिक विचार, अनुभूति और आकांक्षा।
कला अतिसूक्ष्म और कोमल है. अतः अपनी गति के साथ यह मस्तिष्क को भी कोमल और सूक्ष्म बना देती है.
जिसमें फूट हो गई है और पक्ष भेद हो गए हैं, ऐसा समाज किस काम का ? आत्मप्रतिष्ठा और आत्मा की एकता की मूर्ति का समाज चाहिए. अलग रह कर जितना काम होता है, उससे सौ गुना संघशक्ति से होता है.
अब हमारे सारे कार्यों के लक्ष्य मातृभूमि की सेवा ही होनी चाहिए. आपका अध्ययन, मनन, शरीर , मन और आत्मा का संस्कार सभी कुछ मातृभूमि के लिए ही होना चाहिए. आप काम करो, जिससे मातृभूमि समृद्ध हो.
मेरा हर काम अपने लिए न होकर देश के लिए ही है, मेरा हित एवं मेरे परिवार का हित देशहित में ही निहित है.
धन को विलास के लिए खर्च करना एक प्रकार से चोरी होगी. वह धन असहायों और जरूरतमन्दों के लिए है.
जिसमें त्याग की मात्रा, जितने अंश में हो, वह व्यक्ति उतने ही अंश में हो, वह व्यक्ति उतने ही अंश में पशुत्व से ऊपर है.
तुम लोग जड़ पदार्थ, मैदान, खेत, वन-पर्वत आदि को ही स्वदेश कहते हो, परन्तु मैं इसे ‘माँ’ कहता हूँ.
पढो, लिखो, कर्म करो, आगे बढो, कष्ट सहन करो, एकमात्र मातृभूमि के लिए, माँ की सेवा के लिए.
गुण कोई किसी को नहीं सिखा सकता. दूसरे के गुण लेने या सीखने की जब भूख मन में जागती है, तो गुण अपने आप सीख लिए जाते हैं.
यदि तुम किसी का चरित्र जानना चाहते हो तो उसके महान कार्य न देखो, उसके जीवन के साधारण कार्यों का सूक्ष्म निरीक्षण करो.
यदि आप किसी के चरित्र को नहीं जानना चाहते हैं, तो उसके महान कार्यों को न देखें, उसके जीवन के सरल कार्य को करीब से देखें।
भारत की एकता, स्वतंत्रता और प्रगति आसानी से प्राप्त होगी।